पत्रकार चाहे रिपोर्टिंग करे या डेस्क पर रहे, किसी भी बात को 'फेस वैल्यू' पर कभी स्वीकार नहीं करता। कोई भी घटना, कोई भी दर्शन या कोई भी दावा उसके लिए सिर्फ एक विषय होता है, जिसका वह निष्पक्ष भाव से गुण-दोष के आधार पर विश्लेषण करता है। अन्य शब्दों में कहें तो पत्रकारिता का 'कीड़ा' अपना काम सतत रूप से करता रहता है। ज्यादातर पत्रकार इस भ्रम में जीते हैं कि कोई भी उनकी विचारधारा को बदल नहीं सकता। गलतफहमी इस बात की भी होती है कि उन्होंने इतना ज्ञान तो कम से कम अर्जित कर ही लिया है, जो औसत इंसान से कहीं ज्यादा है। दिमाग पर चढ़ी पत्रकारिता की मोटी परत की एक वजह यह भी होती है कि पत्रकार दिन-रात राजनेताओं के भाषणों को सुनता और देखता है। आध्यात्मिक गुरुओं की वाणी को सुनता है। राजनेताओं और आध्यात्मिक गुरुओं के शब्द उनके कर्म और आचरण से मेल नहीं खाते। ऐसे में पत्रकार उनकी सिर्फ ख़बरें बनाते हैं और उनसे दिल से नहीं जुड़ते। कुछ पत्रकार जुड़ते भी हैं तो सिर्फ स्वार्थवश। एक पत्रकार के तौर पर मैं भी २८ साल से कुछ भ्रम में जी रहा था। सरकार का भारी-भरकम प्रचार तंत्र और जाने-माने गुरुओं के प्रवचन भी मुझ पर लेशमात्र प्रभाव नहीं छोड़ पाए थे। 

भोपाल में मेरे पत्रकार मित्र श्री अमिताभ पांडेय ने जब मुझे विपश्यना के १० दिन के शिविर में भाग लेने के लिए प्रेरित किया तो मेरे मन में जिज्ञासा ज्यादा थी। मैंने विपश्यना के बारे में सिर्फ सतही तौर पर सुना था कि साधक घंटों बिना हिले-ढुले एक आसन पर बैठ कर साधना करते हैं, लेकिन ज्यादा जानकारी नहीं थी। ईमानदारी से कहूं तो मैंने सिर्फ जिज्ञासु के तौर पर शिविर में भाग लेने का फैसला किया था। पत्रकारिता का अहंकार दिमाग पर प्रभुत्व कायम किये हुए था कि मुझे क्या सिखा देंगे। दिमाग कैसे संतुलित रखना है मैं भलीभांति जानता  हूँ।

एक बार शिविर में प्रवेश करने के बाद बाहरी दुनिया से संपर्क जब बिलकुल कट गया तो शुरू के तीन दिन विपश्यना केंद्र मुझे किसी ''आध्यात्मिक जेल'' जैसा लगा। न मोबाइल, न टीवी और न कोई समाचार पत्र। साथ में दस दिन का आर्य मौन और संकेतों में भी बात करने की मनाही। एक पत्रकार के लिए यह स्थिति जल बिन मछली जैसी थी। शुरू के तीन दिन सिर्फ श्वास को अनुभव करना सिखाया जाता रहा। मुख्य जोर इस बात पर था कि आखिर हम मन को कितनी देर एकाग्र रख सकते हैं। साधना की कड़ी दिनचर्या के बावजूद शुरू के तीन दिन मैं जिज्ञासु पत्रकार ही बना रहा। मुझे इस प्रश्न का सटीक उत्तर नहीं मिला था कि मेरे भीतर की बोधि कैसे जागेगी ? शिविर के चौथे दिन जब विपश्यना साधना सिखाई गई तो मुझ पर मानो कोई ईश्वरीय चमत्कार हुआ हो। बचपन से सभी ने बहिर्मुखी होने की शिक्षा दी थी। किसी ने पहली बार अंतर्मुखी होने का महत्व समझाया था। विपश्यना साधना में जब मैंने अपने मन को पूरी एकाग्रता के साथ शरीर के विभिन्न अंगों से गुजारा तो मैं शरीर में होने वाली संवेदनाओं को सूक्ष्म तरीके से भी अनुभव कर सकता था। अकल्पनीय और अलौकिक अनुभूति थी। अनित्य बोध, शील, समाधि और प्रज्ञा, समता भाव और शुद्ध धर्म के सिद्धांतों ने मेरे ह्रदय को अनंत गहराइयों तक छू लिया। पत्रकारिता की मोटी परत पपड़ी की तरह उतर गई और  एक साधक ने जन्म ले लिया।

शेष सात दिन मैं सच्चे मन से साधक भिक्षु बना रहा, चाहे मैंने वैसी पोशाक नहीं पहनी थी। विपश्यना में अधिष्ठान साधना करते समय जब मैं दिन में तीन बार एक-एक घंटे बिना हिले-धुले बैठा रहता था तो शरीर में दर्द और खुजली जैसी संवेदनाओं पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देता था। अनित्य  बोध का सिद्धांत जीवन में कितना महत्वपूर्ण है, इस साधना से मैं सीख चुका था। हमारे मन में उठने वाले विकार और आवेग अनित्य हैं। मन हमें नियंत्रित करता है। विपश्यना से हम मन को नियंत्रित कर सकते हैं। समता भाव राग और द्वेष समाप्त कर सकता है।

विपश्यना के सैद्धांतिक पहलुओं का ज्यादा विश्लेषण करने की बजाय मैं सिर्फ उन बिंदुओं की चर्चा करना चाहता हूँ,जिनसे मैं सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ हूँ। एक तो शुद्ध धर्म के अर्थ को व्यापक रूप से समझने की जरूरत है तो दूसरा हमारी प्रज्ञा भावनामयी होनी चाहिए यानी स्वयं की अनुभूति पर आधारित हो। शुद्ध धर्म का अर्थ प्रकृति के वे नियम हैं जो सार्वभौमिक होते हैं और सब पर एक समान लागू होते होते हों।  प्रकृति के विधान और प्रेम-करुणा ही शुद्ध धर्म है। धर्म को हमने सम्प्रदाय और पूजा पद्धति से जोड़ दिया है, जो समाज में वैमनस्यता का मुख्य कारण है। हमारा ज्ञान खुद की अनुभूति पर आधारित नहीं है। इसलिए हम सब शब्द विलास और वाणी विलास में लिप्त हो गए हैं। जिस नेता और संत को हमने स्वयं नहीं परखा है, उसके लिए अंतहीन बहस का क्या औचित्य है ? सिर्फ उसके बारे में पढ़ने और सुनने मात्र से उसके प्रति इतनी आसक्ति क्यों ? हमें सम्यक विचारधारा अपनानी होगी यानी संतुलित विचार रखने होंगे। इसकी समाज को सबसे अधिक आवश्यकता है।

शिविर पूरा होने के बाद मेरी स्थिति ऐसी थी जैसे मानो स्वच्छ तालाब की मछली को गंदे जल में फेंक दिया गया हो। मुझे वास्तविक जिंदगी में फिर ढलने में पूरे तीन दिन लग गए। कितनी नकारात्मकता हमने फैला दी है। अपनी अंतहीन तृष्णा को पूरा करने के लिए कितने तनाव पाल लिए हैं। विप्रो और इनफ़ोसिस जैसी कम्पनीज में शानदार पैकेज पर काम कर रहे कुछ युवा भी शांति की तलाश में इस शिविर में आये थे। दिल्ली के एक युवा आर्किटेक्ट ने बताया कि उसने अपने मोबाइल से सोशल मीडिया के सभी एप्प्स डिलीट कर दिए हैं। अति हर चीज़ की बुरी होती है। यह शाश्वत नियम है। सब अनित्य है। यह दौर भी ख़त्म हो जायेगा। लोग जापान की तरह न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ जीना सीखेंगे।  मुझसे मेरी अर्धांगिनी ने पूछा कि आपको क्या लाभ होगा ? मैंने कहा कि क्रोध पर नियंत्रण रहेगा। पहले दस बार आता था तो अब सिर्फ दो बार। धीरे-धीरे बदलाव आएगा। मेरे लिए विपश्यना का अनुभव अविस्मरणीय रहेगा। प्रकृति और अध्यात्म का अद्भुत संगम। श्रेद्धय गुरु जी ने प्रवचन में कहा था कि जैसे सर्जरी के दौरान ऑपरेशन थिएटर से मरीज नहीं जा सकता, वैसे ही शिविर से साधक को बाहर जाने की अनुमति नहीं होती क्योंकि उसके दिमाग की आध्यात्मिक सर्जरी चल रही होती है। वास्तव में मुझे भी दिमाग के वैचारिक ऑपरेशन की अनुभूति हो रही है।

Source : विश्वदीप नाग, स्वतंत्र पत्रकार, भोपाल